ब्यूरो: बीती चार जून को आए आम चुनाव के नतीजों के बाद से यूपी में समाजवादी पार्टी के अच्छे दिन शुरु हो गए। लोकसभा सीटों की संख्या के लिहाज से सूबे में सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी समाजवादी पार्टी को अब यूपी विधानमंडल के उच्च सदन यानी विधान परिषद में भी नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल हो गया है। लाल बिहारी यादव के नेता प्रतिपक्ष बनने पर मुहर लग गई है।
विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष से लेकर अन्य पदों पर सपा के पीडीए फार्मूले की छाप
बीते सोमवार 22 जुलाई को सभापति विधान परिषद को लिखे गए पत्र के जरिए सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने लाल बिहारी यादव को नेता प्रतिपक्ष नियुक्त करने की संस्तुति की है। जबकि किरण पाल कश्यप को विधान परिषद में पार्टी का मुख्य सचेतक, आशुतोष सिन्हा को सचेतक और जासमीर अंसारी को परिषद के उपनेता बनाने का आग्रह किया गया है। इन नामों का चयन करने के दौरान सपा मुखिया ने अपनी पार्टी के पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) फार्मूले की कसौटी का खास ख्याल रखा।
सपा ने नेता प्रतिपक्ष का ओहदा पाने लायक सीटें हासिल कर ली हैं
विधान परिषद में अभी तक लाल बिहारी यादव सपा दल के नेता हुआ करते थे, कुछ समय पूर्व तक सपा के पास नेता प्रतिपक्ष बनाने के लायक सदस्य संख्या नहीं थी। बीती पांच मई को परिषद की रिक्त हुई 13 सीटों के चुनाव में सपा को तीन सीटें हासिल हुई थीं। अब विधान परिषद में उसकी कुल सदस्य संख्या 10 हो गई है, जो नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए आवश्यक सदस्य संख्या के बराबर हो गई। उच्च सदन में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा पाने के लिए लालबिहारी यादव ने लंबी अदालती लड़ाई भी लड़ी थी। इसलिए पार्टी की ओर से यह अहम जिम्मेदारी पाने के लिए वही डिजर्व भी करते थे।
दो साल पूर्व सपा से उच्च सदन में नेता प्रतिपक्ष का पद छिन गया था
गौरतलब है कि आज से चार साल पहले 2020 में समाजवादी पार्टी के नेता लाल बिहारी यादव विधान परिषद के सदस्य बने थे। 27 मई, 2020 को उन्हें विधान परिषद में विरोधी दल के नेता के तौर पर मान्यता दी गई थी। लेकिन फिर सपाई खेमे के विधायकों की संख्या दस से कम हो गई इसके बाद सभापति कुंवर मानवेंद्र प्रताप सिंह ने 7 जुलाई, 2022 की अधिसूचना के जरिए लाल बिहारी की परिषद के नेता प्रतिपक्ष की मान्यता निरस्त कर दी। जिसे उन्होंने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। पर हाई कोर्ट ने नेता प्रतिपक्ष के रूप में उनकी मान्यता वापस लिए जाने के फैसले पर ही मुहर लगा दी थी। जिसके खिलाफ लाल बिहारी यादव ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
सुप्रीम कोर्ट में लाल बिहारी यादव ने तर्कों के जरिए हटाए जाने को दी थी चुनौती
लाल बिहारी यादव ने आरोप लगाया था कि समाजवादी पार्टी उच्च सदन में सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन नियमों का गलत हवाला देकर नेता विरोधी दल की मान्यता खत्म कर दी गई। इसे लोकतंत्र को कमजोर एवं कलंकित करने वाला असंवैधानिक निर्णय बताते हुए सपा ने इस फैसले को विपक्ष की आवाज दबाने और कमजोर करने की साजिश करार दिया था। सपाई खेमे के मुताबिक सभापति ने विधान परिषद की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमावली 1956 के जिस नियम-234 का उल्लेख करते हुए नेता विरोधी दल की मान्यता को समाप्त करने की अधिसूचना जारी की है, वह नियम सदन के संचालन के लिए है, यानी सदन में यदि 10 सदस्य से कम हैं तो सदन की कार्यवाही नहीं हो सकती है। लेकिन इस नियम का इस्तेमाल नेता विरोधी दल की मान्यता समाप्त करने के लिए नहीं किया जा सकता है।
शीर्ष अदालत में निर्वाचित व नामित सदस्यों की संख्या के आधार पर रखे गए थे तर्क
शीर्ष अदालत में सपा नेता लाल बिहारी यादव की दलील थी कि नेता प्रतिपक्ष सदन में सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता होता है। सदन के चेयरमैन कार्यालय से जारी अधिसूचना कहती है कि नेता प्रतिपक्ष उसी पार्टी का होगा, जिसके सदस्य सदन की कुल क्षमता का 10 फीसदी होंगे। ऐसे में नेता प्रतिपक्ष का पद सपा को मिलना चाहिए क्योंकि उसके सदन में नौ सदस्य हैं जो सदन के निर्वाचित सदस्यों का 10 प्रतिशत हैं। सरकार ने उनकी दलील का विरोध करते हुए कहा था कि यह संख्या कुल सदस्य संख्या का 10 प्रतिशत होनी चाहिए। सौ सदस्यीय सदन में 90 सदस्य निर्वाचित और 10 सदस्य नॉमिनेट होते हैं। ऐसे में कम से कम 10 सदस्यों वाली पार्टी ही यह पद पाने के योग्य है। इस याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि , 'हमें देखना होगा कि क्या कानून में ऐसा कोई प्रतिबंध है कि नेता प्रतिपक्ष उसी पार्टी का होगा जिसकी सदन में निश्चित संख्या में सीटें होंगी।'
विधान परिषद ने शीर्ष अदालत से विधायी परंपरा में हस्तक्षेप न करने का अनुरोध किया था
परिषद में नेता प्रतिपक्ष को मान्यता देने संबंधी सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका की सुनवाई के दौरान यूपी विधान परिषद की ओर से सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी गई थी कि दशकों पुरानी परंपरा है कि नेता प्रतिपक्ष का दर्जा उसी दल के नेता को दिया जाता है जिसके सदन की कुल क्षमता के 10 फीसदी सदस्य हों। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जेबी परदीवाला की बेंच के सामने यूपी विधान परिषद के सभापति की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट केवी विश्वनाथ ने कहा था कि कुछ अपवादों को छोड़कर पुरानी विधायी परंपरा का वर्षों से पालन किया जा रहा है, सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को ही विपक्ष के नेता का दर्जा दिया जाता है, अगर वह दल 10 प्रतिशत सदस्यों के कोरम को पूरा करता है। उनकी ओर से ये भी कहा गया था कि अदालत को विपक्ष के नेता की नियुक्ति के लिए सदन की ओर से निर्धारित प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए।
विधानसभा के बाद अब उच्च सदन में भी होगा सपा का बोलबाला
लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ी जीत हासिल करने के बाद सपा के खाते में एक और उपलब्धि जुड़ने जा रही है। दो साल पहले विधान परिषद में जो उसने नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी गंवाई थी, 29 जुलाई से शुरु हो रहे विधानमंडल सत्र में उसे वह वापस मिल जाएगी। क्योंकि, दस सदस्य होने के बाद के बाद सदस्य संख्या के कोरम को उसने पूरा कर लिया है। अब दोनों सदनों में ही उसके पास नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी होगी। विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष का पद मिलने से अब सपाई खेमा उच्च सदन में और अधिक प्रभावी व धारदार उपस्थिति का अहसास करा सकेगा।